श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी–६

बाग से लौटने पर सुपर्णा के हृदय में मोहन के लिए क्रोध पैदा हुआ। घरवालों ने सख्‍त निगरानी रखने के अलावा, डर के मारे उससे कुछ नहीं कहा। उसने भी विरोध किए बिना विवाह के बहाव में अपने को बहा दिया। मन में यह प्रतिहिंसा लिए हुए, कि मोहन इस बहते में मिलेगा। और उसे हो सकेगा तो उचित शिक्षा देगी। शास्‍त्री जी को एकांत भक्‍त देखकर मन में मुस्‍कराई।

सुपर्णा का जीवन शास्‍त्री जी के लिए भी जीवन सिद्ध हुआ। शास्‍त्री जी अपना कारोबार बढ़ाने लगे। सुपर्णा को वैदक की अनुवादित हिंदी पुस्‍तकें देने लगे, नाड़ी-विचार चर्चा आदि करने लगे। उस आग में तृण की तरह जल-जलकर जो प्रकाश देखने लगे, वह मर्त्‍य में उन्‍हें दुर्लभ मालूम दिया। एक दिन श्रीमती गजानन्‍द शास्त्रिणी के नाम से स्त्रियों के लिए बिना फीस वाला रोग परीक्षणालय खोल दिया - इस विचार से कि दवा के दाम मिलेंगे, फिर प्रसिद्धि होने पर फीस भी मिलेगी।

लेकिन ध्‍यान से सुपर्णा के पढ़ने का कारण कुछ और है। शास्‍त्री जी अपनी मेज की सजावट तथा प्रतीक्षा करते रोगियों के समय काटने के विचार से 'तारा' के ग्राहक थे।

एक दिन सुपर्णा 'तारा' के पन्‍ने उलटने लगी। मोहन की एक रचना छिपी थी। यह उसकी पहली प्रकाशित कविता थी। विषय था 'व्‍यर्थ प्रणय'। बात बहुत कुछ मिलती थी। लेकिन कुछ निंदा थी - जिस प्रेस से कवि स्‍वर्ग से गिरा जाता है - उसकी। काव्‍य की प्रेमिका का उसमें वहीं प्रेम दर्शाया गया था। सुपर्णा चौंकी। फिर संयत हुई और नियमित रूप से 'तारा' पढ़ने लगी।

एक साल बीत गया। अब सुपर्णा हिंदी में मजे में लिख देती है। मोहन से उसका हाड़-हाड़ जल रहा था। एक दिन उसने पातिव्रत्‍य पर एक लेख लिखा। आजकल के छायावाद के संबंध में भी पढ़ चुकी थी और बहुत कुछ अपने पति से सुन चुकी थी। काशी हिंदी के सभी वादों की भूमि है। प्रसाद काशी के ही हैं। उनके युवक पाठक शिष्‍य अनेक शास्त्रियों को बना चुके हैं।

पं. गजानन्‍द शास्‍त्री गंगा नहाते समय कई बार तर्क कर चुके हैं, उत्तर भी भिन्‍न मुनि के भिन्‍न मत की तरह अनेक मिल चुके हैं। एक दिन शास्‍त्री जी के पूछने पर एक ने कहा, 'छायावाद का अर्थ है शिष्‍टतावाद; छायावादी का अर्थ है सुंदर साफ वस्‍त्र और शिष्‍ट भाषा धारण करने वाला; जो छायावादी है, वह सुवेश और मधुरभाषी है; जो छायावादी नहीं है वह काशी के शास्त्रियों की तरह अंगोछा पहनने वाला है या नंगा है।' दूसरे दिन दो थे। नहा रहे थे।

शास्‍त्री जी भी नहा रहे थे। 'छायावाद क्‍या है?' - शास्‍त्री जी ने पूछा। उन्‍होंने शास्‍त्री जी को गंगा में गहरे ले जाकर डुबाना शुरू किया, जब कई कुल्‍ले पानी पी गए, तब छोडा; शिथिल होकर शास्‍त्री जी किनारे आए, तब लड़कों ने कहा, 'यही है छायावाद।' फलत: शास्‍त्री जी छायावाद और छायावादी से मौलिक घृणा करने लगे थे और जिज्ञासु षोडशी प्रिया को समझाते रहे कि छायावाद वह है, जिसमें कला के साथ व्‍यभिचार किया जाता है तरह-तरह से।

आइडिया के रूप में, सुपर्णा जैसी ओजस्विनी लेखिका के लिए इतना बहुत था। आदि से अंत तक उसके लेख में प्राचीन पतिव्रत धर्म और नवीन छायावादी व्‍यभिचार प्रचारक के कंठ से बोल रहा था। शास्‍त्री जी ने कई बार पढ़ा और पत्‍नी को सती समझकर मन-ही-मन प्रसन्‍न हुए। वह लेख संपादकजी के पास भेजा गया।

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